कुर्सी

एक कुर्सी
इंसान की तरह ही
अपनी आप-बीती होती है

खाली कुर्सी चाहती है
उस पर जो सवार हो
तनिक होशियार हो
उन्मत्त ना चूर हो,
ना ख़ादिम नासूर हो,
वो ना सुख-खोना हो,
ना ईमान में पौने हो,
बस बाल्टी का पानी हो,
मग्गे सा फ़ानी हो।

कुर्सी विकलांगों का स्वागत करती है
लोग कहते नहीं, लेकिन ख़ुशामद करती है
कुर्सी दो नज़रों को नापाक़ करती है
हलक़ में फँसी कथनी साफ़ करती है

वो अपने रेगिस्तान का एरिया जानती है
जानती है दर्दनाक बुढ़ापा
ज़िंदों के लिए तो है, मुर्दों के लिए और ज़्यादा
क्यूँकि मुर्दे
रक़्स नहीं जानते, गाना नहीं गाते
कविता नहीं कहते, पानी नहीं पीते
बैंडमिंटन नहीं खेलते, चूम नहीं पाते
चुटकुले नहीं सुनाते

समय हो चुकने पर
कुर्सी मैदानों में पायी जाती है
हरी घास के बीच अलसाती हुई,
एक पस्त कुर्सी!
सारे पैर, दोनों हाथ
फैल के विटामिन लेते हुए।
कुर्सी अपने रिटायरमेंट में हर रोज़
उन पुट्ठेवालियों को याद करती है
जिन्होंने उसे इस क़ाबिल बनाया
कि वो दुनिया का हर कूल्हा ढो सके
और बाक़ी उम्र स्वाभिमान से खो सके

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